Saturday 13 October 2012

मुखड़ा लेकिन नहिं लखे, दर्पण में अफ़सोस-



ग्यानी है हर शिक्षिका, समझे हर गुण-दोष ।
मुखड़ा लेकिन नहिं लखे,  दर्पण में अफ़सोस ।
दर्पण में अफ़सोस, दूध में दिखे कमायी ।
गर परचून दूकान, मिलावट कर व्यवसायी ।
पुलिस भ्रष्टतम किन्तु, गौर कर अरी सयानी।
 कक्षा में यह बात, सुना क्यूँ बनती ग्यानी ।।


 


 करते सज्जन कर्म शुभ, स्वयं समर्पित सुज्ञ |
मीन-मेख ढूँढा करें, किन्तु कुतर्की विज्ञ | 
  किन्तु कुतर्की विज्ञ, कृत्य खुद के खुब भायें |
करे अनैतिक काम, सही ठहराते जाएँ  |
जाने पथ्यापथ्य, मगर नित मांस डकरते ||
सम्मुख शाश्वत सत्य, टिप्पणी उलटी करते |



बातें ही बातें विषद, धनी बात का होय ।
परहित बातें कर रहा, अपना *आपा खोय ।   
अपना *आपा खोय, हास्य को है अपनाता ।
हँसने का सन्देश,  सभी को सदा सुनाता ।
कुछ लोगों को किन्तु, नहीं हम दोनों भाते ।
ग्यानी उल्लू देख, लोग अक्सर मुँह बाते ।
*विनीत भाव ग्रहण करना 


 खादी की यह दुर्दशा, गांधी का अपमान |
बर्बादी का है जमा, हर  साजो-सामान |
हर  साजो-सामान, सभी ग्रामोदय भूले |
मची हुई है होड़, आसमाँ को झट छूलें |
गांधी दर्शन मूल, किन्तु पश्चिम  के आदी |
संस्कार सब  भूल, भूलते जाते खादी ||

बने भीड़ की यह सदा, परभावी आवाज |
भेड़-भेड़ियों दुष्ट से, रक्षित रहे समाज |
रक्षित रहे समाज, भूमि पर आय भास्कर |
कर दे पावन सोच, दुष्टता -पाप जलाकर |
रविकर का विश्वास, हिफाजत करे नीड़ की |
सत्ता जाए चेत, सुने आवाज भीड़ की ||


मालिक तड़पे दर्द से, बाम मलाये हाथ |
नौकर मलता जा रहा, पीठ दर्द के साथ |
पीठ दर्द के साथ, रखे होंठों को भींचे |
अश्रु बहे चुपचाप, आग भट्ठी की सींचे |
 माता है बीमार, तभी आजादी हड़पे |
सहता नौकर जुल्म, नहीं तो मालिक तड़पे ||

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